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बॉम्बे बार: विवेक अग्रवाल की नई किताब



Vivek Agrawal को वैसे तो मैं क्राइम रिपोर्टर और क्राइम हिस्टोरियन के रूप में ही जानता था। महाराष्ट्र की राजनीतिक खबरें भी उनकी लिखी कई पढ़ रखी थीं। जब पहली मुलाकात हुई तब वे अपनी दो किताबों पर मुझसे बात कर रहे थे। वे किन्हीं परिस्थितियों में आई-गई हो गईं मेरे हाथ में आने से पहले ही। लेकिन कोई तार जुड़ गया था शायद। 

विवेक जी जब भी दिल्ली आते, बैठकी जमाते मेरे साथ जरूर। हमारी बातों में हर बार एक किताब का नक्शा बन जाता। कुछ पर काम अनवरत चल रहा है। तब तक यह 'बॉम्बे बार' आने की राह चल पड़ी है। बॉम्बे की बारबालाओं की जिंदगी को वास्तविक ढंग से सामने ला रही यह किताब समाज को समझने की एक अलग खिड़की खोल सकती है।

इसके बारे में फ़िलहाल ज्यादा कुछ कहना मुनासिब नहीं। विश्व पुस्तक मेले का इंतजार करें। आज केवल किताब का आवरण आप सबसे साझा कर रहा हूँ जिसे Bhavi Mehta ने डिजाइन किया है। किताब की आत्मा को अपने डिजाइन में उतार देने का हुनर उन्होंने बखूबी दिखाया है।

राधाकृष्ण प्रकाशन (Rajkamal Prakashan Samuh) के 'फंडा' इम्प्रिंट की यह खास पेशकश आपको पसंद आए, दिल तो यही चाहता है। अछूते विषय पर यह महान काम है, इसका कोई दावा नहीं। लेकिन ऐसे विषयों पर खुल कर बात हो, लिखा-पढ़ा जाए, इसके लिए यह भी एक शुरुआत जरूर है। 

स्याह हो, सफेद हो, धूसर हो, अंधेर हो, रौशन हो- हर जिंदगी से यह समाज है। सबको वाजिब ढंग से समझना होगा। उसी से आक्रामकता और वहशीपने को भी थामा जा सके शायद।

(सत्यानंद निरुपम, डायरेक्टर एडिटोरियल, राजकमल प्रकाशन की फेसबुक वॉल से साभार)

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